नीतिनवनीतम् कक्षा छठवीं विषय संस्कृत पाठ 18

नीतिनवनीतम् कक्षा छठवीं विषय संस्कृत पाठ 18

क्षणे तुष्टाः क्षणे रुष्टाः रुष्टाः तुष्टाः क्षणे-क्षणे।
 अव्यवस्थितचित्तानां प्रसादोऽपि भयङ्करः ।। 1 ।।

शब्दार्था:- तुष्टाः प्रसन्न, क्षणे =क्षण भर में, रुष्टा: = नाराज, अव्यवस्थित चित्तानां = अस्थिर चित्त वालों का, प्रसादः = प्रसन्नता, अपि = भी।

अनुवाद-क्षण में प्रसन्न, क्षण में नाराज क्षण-क्षण में प्रसन्न एवं नाराज होने वाले ऐसे अव्यवस्थित चित्त (अस्थिर चित्त) वालों की कृपा भी भयङ्कर होती है।

सम्पूर्ण कुम्भो न करोति शब्दमर्धो घटो घोषमुपैति नूनम् ।
विद्वान् कुलीनो न करोति गवं जल्पन्ति मूढास्तु गुणैर्विहीनाः

शब्दार्था:- सम्पूर्ण =पूरी तरह भरा हुआ, कुम्भ: =घड़ा, घोषम् =आवाज, गर्व =घमण्ड, न करोति =नहीं करता, जल्पन्ति= बोलते हैं, मूढ़ा = मूर्ख।

अनुवाद-पूरी तरह भरा हुआ घड़ा आवाज नहीं करता है किन्तु अर्ध भरे घड़े से आवाज आती है। उसी तरह कुलीन विद्वान् घमण्ड नहीं करता है, किन्तु गुणों से होन मूर्ख घमण्ड की बातें करते हैं।

येषां न विद्यां न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं गुणो न धर्मः । 
ते मृत्युलोके भुवि भारभूताः, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥3॥

‘शब्दार्था:- येषां = जिनके पास, मृत्युलोके =मृत्युलोक में (इस धरती पर) मृग = पशु, चरन्ति = विचरण करते हैं।

अनुवाद – जिस व्यक्ति से पास विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील, गुण, धर्म आदि न हो वह मनुष्य इस धरती पर भार स्वरूप बनकर मनुष्य रूपी मृग के समान विचरण करते हैं।

उद्यमेन हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः 
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥ 4 ॥

शब्दार्था:- उद्यमेन =परिश्रम करने से, मनोरथैः = कामना करने से, सिद्धयन्ति = सिद्ध होते हैं, प्रविशन्ति =प्रवेश करते हैं, मृगाः = हिरण, मुखे= मुख में। 

अनुवाद- केवल कामना करने के नहीं बल्कि उद्यम करने से कार्य सिद्ध होते हैं। जैसे सोये हुए सिंह के मुख में मृग प्रवेश नहीं करता।

शैले-शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे-गजे ।
 साधवो न हि सर्वत्र, चन्दनं न बने बने ॥15॥

शब्दार्था:- शैले-शैले = हर पर्वत पर ,मौक्तिकम् = मोती, गजे-गजे = हर हाथी में, साधवः =सज्जन, सर्वत्र =हर जगह, वने वने = हर वन में।

अनुवाद- हर पर्वत पर माणिक्य नहीं मिलता, हर हाथी के मस्तक में मोती नहीं रहता। साधु सभी जगह नहीं मिलते। चंदन हर वन में नहीं मिलता। 

यस्त नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्याम् विहीनस्य, दर्पणः किं करिष्यति ॥16॥ 

शब्दार्था:- • यस्य= जिसके, प्रज्ञा = ज्ञान, दर्पण: =आइना, लोचनाभ्याम् विहीनस्य = अन्धे के लिए, किम् = क्या।

अनुवाद – जिसके पास स्वयं का ज्ञान नहीं है उसके लिए शास्त्र क्या कर सकता है। जैसे आँख के अंधे के लिए दर्पण क्या कर सकता है।

नरस्याभरणम् रूपम्, रूपस्याभरणम् गुणः ।
गुणस्याभरणम् ज्ञानम्, ज्ञानस्याभरणम् क्षमा ॥ 7 ॥

 शब्दार्था:- नरस्य मनुष्य का, आभरणम् = आभूषण, गुणस्य = गुण का, ज्ञानस्य =ज्ञान का

अनुवाद- मनुष्य का आभूषण रूप है। रूप का आभूषण गुण है। गुण का आभूषण ज्ञान तथा ज्ञान का आभूषण क्षमा है।