अँग्रेजी शासन का भारतीय जन जीवन पर प्रभाव कक्षा 8 सामाजिक विज्ञान भाग 1 इतिहास
अँग्रेजी शासन का भारतीय जन जीवन पर प्रभाव कक्षा 8 सामाजिक विज्ञान भाग 1 इतिहास
सन् 1600 ई. से 1757 ई. तक ईस्ट इंडिया कंपनी का उद्देश्य व्यापार करना था। वे भारत से कपड़ा, मसाले आदि खरीदने के लिये अपने देश से सोना, चाँदी आदि लेकर आते थे। वे भारतीय सामान को विदेशों में बेचकर काफी मुनाफा कमाते थे मगर अपने देश का सामान भारतीय बाजारों में नहीं बेच पाते थे। इस एकतरफा व्यापार के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी की काफी आलोचना होने लगी। कंपनी पर दबाव डाला गया कि वे व्यापार के लिए धन की व्यवस्था भारत से ही करें। प्लासी और बक्सर के युद्धों के बाद बंगाल पर उनका अधिकार हो गया। बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा की दीवानी (भूमिकर) वसूल करने का अधिकार भी उन्हें प्राप्त हो गया। इससे उन्हें अपने व्यापार के लिए जरूरी धन भारत से ही मिलने लगा। उन्हें अपने प्रशासनिक खर्चों तथा साम्राज्य विस्तार के लिए जरूरी धन की भी चिंता नहीं रही। उस समय भूमिकर किसी भी शासक के लिए आमदनी का प्रमुख स्रोत था; इसलिए अँग्रेजों ने भी मुख्यतः भूमिकर पर ही अपना नियंत्रण बनाना प्रारंभ किया ।
अँग्रेजों की कृषि नीति
अँग्रेजों ने शुरुआत में स्थानीय तौर पर प्रचलित कर व्यवस्था को ही चलाए रखा; बाद में उन्होंने कर निर्धारण और संग्रहण की अलग-अलग व्यवस्थाएँ बनाई। ये भारत के अलग-अलग प्रदेशों की सामाजिक व्यवस्था व शासन की जरुरतों के अनुसार तैयार की गईं थीं। ये जमीदारी, रैयतवाड़ी व महलवाड़ी बंदोबस्त प्रथाएँ थीं।
पहले दौर में अँग्रेजों द्वारा लगान वसूली के लिए ठेकेदारी करने के अधिकार को नीलाम किया जाता था जो सबसे अधिक पैसा जमा करने का वादा करता, उसे यह अधिकार दिया जाता था। ठेकेदार का यह प्रयास होता था कि वह जल्दी से जल्दी किसानों से ज्यादा-से-ज्यादा लगान वसूल करे। ठेकेदारों को केवल अपने लगान की वसूली से मतलब रहता था। वे किसानों के हित अहित का ध्यान नहीं रखते थे। इसलिये अब अँग्रेजों ने एक-दो वर्ष की ठेकेदारी के स्थान पर पाँच साला बंदोबस्त शुरू किया। उन्हें लगा कि लम्बे समय तक ठेका देने से किसानों के शोषण में कुछ कमी होगी। अब वे नए ठेकेदारों की तुलना में पुराने जमींदारों को लगान देने लगे। इस तरह लगान वसूली की नीति में बार-बार परिवर्तन होते रहे।
स्थाई बंदोबस्त –
अंग्रेज सरकार ने सन् 1789 में बंगाल प्रांत से राजस्व वसूल करने के लिए जमींदारों के साथ समझौता किया जो स्थायी बंदोबस्त कहलाया। कार्नवालिस ने फैसला किया कि भू-राजस्व की वसूली जमीदारों के हाथ हो। जमींदार भू-राजस्व न दे सके तो उसकी जमींदारी जब्त करके उसकी जगह नए जमींदार को बिठा दिया जाएगा। बार-बार भू-राजस्व निर्धारण से बचने के लिए कार्नवालिस ने 1789-90 में देय भू-राजस्व के आधार पर जमींदारों को दस साल के लिए जमीन का मालिक मान लिया। अब वे जमीन की खरीदी-बिक्री कर सकते थे एवं लगान न पटाने पर किसानों को जमीन से बेदखल भी कर सकते थे। कंपनी शासन के लिए भू-राजस्व आमदनी का प्रमुख स्रोत थी। इस व्यवस्था से कंपनी को आर्थिक स्थायित्व प्राप्त हो गया। इस कानून की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि लगान को कृषि के विकास और उत्पादन में वृद्धि बढ़ाने या घटाने से जोड़कर नहीं देखा गया था इसलिए जमींदार तो निश्चित लगान वसूलते रहे पर किसानों या सरकार को इससे अधिक फायदा नहीं हुआ। –
रैयतवाड़ी व्यवस्था
इस व्यवस्था का मूल आधार लगान का किसान (रैयत ) के साथ सीधे करार करना था । यह तय किया गया कि कृषि उत्पादन में हुए खर्च को निकालकर जो बचेगा उसका पचास प्रतिशत भू-राजस्व होगा। शुरू के दिनों में फसल और उसके मूल्य के घटने-बढ़ने से राजस्व का कोई तालमेल नहीं था । बम्बई और मद्रास प्रेसीडेंसी प्रांत में 30 वर्षों के लिए यह बंदोबस्त लागू किया गया। किसानों के साथ सीधे करार के बाबजूद इस व्यवस्था से किसानों का शोषण होता रहा।
महलवाड़ी व्यवस्था –
सन् 1833-43 ई. बीच अँग्रेज शासकों ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश में एक नई लगान व्यवस्था लागू की जिसमें पूरे गाँव (जिसे महल कहते थे) से लगान का बंदोबस्त किया जाता था, अर्थात् गाँव के सभी कृषक परिवारों पर लगान जमा करने की संयुक्त जिम्मेदारी थी। इसमें रैयत बंदोबस्त की तरह कृषि खर्च और किसानों के भरण-पोषण का खर्च निकालकर जो बचता था उसका लगभग आधा हिस्सा लगान के रूप में वसूल किया जाता था । इस व्यवस्था को पंजाब, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में भी लागू किया गया था।
छत्तीसगढ़ में लगान व्यवस्था
अँग्रेज अधिकारियों ने छत्तीसगढ़ की लगान (भू-राजस्व) व्यवस्था में अनेक परिवर्तन किए। उन्होंने छत्तीसगढ़ को अनेक तहसील में बाँट दिया और तहसीलदारों की नियुक्तियाँ कीं । प्रत्येक परगने में लगान वसूल करने के लिए अमीर और पण्ड्या, राजस्व अधिकारी की नियुक्ति की । अँग्रेज अधिकारियों ने मराठा प्रशासन के समय प्रचलित पटेल के पद को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर गौटिया का पद सृजन किया। उस समय गाँव के गौटिया वर्ष में तीन किश्तों में लगान वसूल किया करते थे। लगान का निर्धारण जमीन के क्षेत्र के आधार पर किया जाता था।
अँग्रेजों द्वारा लागू की गई इन लगान व्यवस्थाओं से किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ; क्योंकि अँग्रेजों द्वारा लागू प्रत्येक लगान की दर बहुत ऊँची तथा अनिवार्य थी, जिन्हें कृषि की आय से चुका पाना मुश्किल होता था। इसलिए किसानों को जमींदारों एवं साहूकारों से कर्ज भी लेना पड़ता था। नियत समय पर कर्ज न पटा सकने पर उनकी जमीन साहूकारों द्वारा हड़प ली जाती थी । परिणामस्वरूप किसानों की हालत बहुत खराब हो गई एवं शासन के प्रति असंतोष की भावना पनपने लगी। इस प्रकार कुछ स्थानों पर किसानों ने कंपनी शासन के विरुद्ध विद्रोह भी किया ।
दस्तकारी एवं शिल्प पर प्रभाव –
कंपनी की प्रशासनिक व्यवस्था ऐसी थी कि भारतीय हस्तकला एवं शिल्पकारी धीरे-धीरे नष्ट होने लगी। भारतीय दस्तकारों एवं शिल्पियों को अपनी वस्तुएँ कम दामों पर बेचने के लिए विवश किया गया उन पर भारी कर भी लगाया गया इंग्लैंड से आनेवाली वस्तुओं को तटकर एवं चुंगीकर से मुक्त रखा गया था। इससे वे सस्ती हो गई। परिणामस्वरूप भारतीय दस्तकारी एवं शिल्प विदेशी वस्तुओं के सामने नहीं टिक सकीं। भारतीय कारीगर अपना व्यवसाय छोड़ने लगे और उनकी बस्तियाँ उजड़ गईं। ढाका शहर का वस्त्र उद्योग, जिसके कारण वह भारत का मैनचेस्टर कहलाता था, नष्ट हो गया। मुर्शिदाबाद एवं सूरत के उद्योग भी नष्ट हो गए। कारीगर बेरोजगार हो गए और कृषि पर निर्भर हो गए। फलतः कंपनी शासन के प्रति उनमें असंतोष पनपने लगा।
वनों में रहनेवाले लोगों पर प्रभाव-
अँग्रेजी शासन के दौरान भारत में वनोपजों पर आधारित नई-नई मिलों व कारखानों की स्थापना हुई। भारत के जंगलों में पाए जानेवाले मजबूत लकड़ियों का उपयोग रेलों की पटरियाँ बिछाए जाने के लिए किया जाता था। साथ ही इंग्लैण्ड की मिलों के लिए भी लकड़ियाँ भेजी जाती थीं। इससे वनों की कटाई में तेजी आ गई। जंगलों में रहनेवाले जनजाति जो झूम खेती करते थे, उन्हें पेड़ काटने आदि पर रोक लगा दी। इससे उनकी जीवन-शैली प्रभावित हुई। वे अँग्रेजी शासन के विरोध में उठ खड़े हुए। अँग्रेजों की नीति के विरोध में भारत के विभिन्न जनजाति क्षेत्रों में कई आन्दोलन हुए इनमें बिरसा मुंडा की अगुवाई में मुंडा जनजाति द्वारा किया गया विरोध प्रमुख स्थान रखता है। वे बदलते समय और अँग्रेजी नीति तथा दीकु (बाहरी लोग) के हस्ताक्षेप से परेशान थे। वे इन परेशानियों को दूर करना चाहते थे । बिहार के छोटानागपुर के पठार के जंगलों में रहने वाला एक जनजाति व्यक्ति जिनका नाम बिरसामुंडा जिनका जन्म 1870 दशक के मध्य हुआ था। बिरसा बचपन से ही भेड़ बकरियाँ चराते, बाँसुरी बजाते और स्थानीय अखाड़ों में नाचते गाते जीवन बिताते थे।
बिरसा मुंडा का आन्दोलन –
बिरसा का आन्दोलन जनजाति समाज को सुधारने का आन्दोलन था। उन्होंने मुण्डाओं से आह्वान किया कि वे शराब पीना छोड़ दें गाँवों को साफ सुथरा रखें और डायन व जादूटोने में विश्वास न करें। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि बिरसा ने मिशनरियों और हिन्दू जमीदारों का भी लगातार विरोध किया वह उन्हें बाहर का मानते थे जो मुण्डा जीवन शैली को नष्ट कर रहे थे।
अँग्रेजों को बिरसा आन्दोलन के राजनैतिक उद्देश्यों में बहुत अधिक परेशानी थीं। यह आन्दोलन मिशनरियों, महाजनों, हिन्दू भूस्वामियों और सरकार को बाहर निकालकर बिरसा के नेतृत्व में मुण्डाराज स्थापित करना चाहता था। यह आन्दोलन इन्हीं ताकतों को मुण्डाओं की समस्याओं व कष्टों का प्रमुख कारण मानता था। अंग्रेजों की कूटनीतियाँ उनकी परम्परागत भूमि व्यवस्था को नष्ट कर रही थी हिन्दू भूस्वामी और महाजन उनकी जमीन को छीनते जा रहे थे और मिशनरी उनकी परम्परागत संकृति की आलोचना करते थे । जब आन्दोलन फैलने लगा तो अंग्रेजों ने कठिन कार्यवाही का फैसला लिया उन्होंने 1895 में बिरसा को गिरफ्तार किया और दंगे-फसाद के आरोप में दो साल की सजा सुनाई। सन् 1897 में जेल से छूटने के बाद बिरसा समर्थन जुटाने गाँव-गाँव घूमने लगे । उन्होंने लोगों को उकसाने के लिए परम्परागत प्रतीकों और भाषा का इस्तेमाल किया। सन् 1900 में बिरसा की मृत्यु हो गई और आन्दोलन धीमा पड़ गया । यह आन्दोलन दो मायनों में महत्वपूर्ण था। पहला – इसने औपनिवेशिक सरकार को ऐसे नियम लागू करने के लिए मजबूर कर दिया जिनके जरिये दीकु लोग आदिवासियों की जमीन पर आसानी से कब्जा न कर सकें । दूसरा इसने एक बार फिर जता दिया कि अन्याय का विरोध करने और औपनिवेशिक शासन के विरूद्ध अपने गुस्से को अभिव्यक्त करने में जनजाति सक्षम हैं। उन्होंने अपने खास अंदाज में अपनी खास रस्मों और संघर्ष के प्रतीकों के जरिये इस काम को अंजाम दिया ।
छत्तीसगढ़ के प्रमुख आदिवासी विद्रोह
इसी समय जब पूरे भारत में जनजाति आन्दोलन आग की तरह फैली तब हमारा छत्तीसगढ़ भी उससे अछूता नहीं रहा। छत्तीसगढ़ राज्य में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक अनेक जनजाति विद्रोह हुए। ज्यादातर जनजाति विद्रोह बस्तर क्षेत्र में हुए जहाँ के जनजाति अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए विशेष सतर्क थे। इन विद्रोहों में एक सामान्य विशेषता यह थी कि
- ये सभी विद्रोह जनजातियों को अपने निवास क्षेत्र, भूमि व वन में हासिल परम्परागत अधिकारों को छीने जाने के विरोध में हुआ था।
- ये विद्रोह जनजाति अस्मिता और संस्कृति के संरक्षण के लिए भी हुए।
- विद्रोहियों ने नई शासन व्यवस्था और ब्रिटिश राज द्वारा थोपे गए नियमों व कानूनों का विरोध किया।
- जनजाति मुख्यतः बाह्य जगत व शासन के प्रवेश से अपनी जीवन शैली, संस्कृति एवं निर्वाह व्यवस्था में उत्पन्न हो रहे खलल को दूर करना चाहते थे।
हल्बा विद्रोह (1774-79)
इस विद्रोह का प्रारंभ 1774 में अजमेर सिंह द्वारा हुआ जो डोंगर में बस्तर के राजा से मुक्त एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना चाहते थे। उन्हें हल्बा जनजातियों व सैनिकों का समर्थन प्राप्त था इसका अत्यंत क्रूरता से दमन किया गया, नर संहार बहुत व्यापक था, केवल एक हल्बा विद्रोही अपनी जान बचा सका । इस विद्रोह के फलस्वरूप बस्तर मराठों को उस क्षेत्र में प्रवेश का अवसर मिला जिसका स्थान बाद में ब्रिटिशों ने ले लिया।
परालकोट विद्रोह (1825)
परालकोट विद्रोह मराठा और ब्रिटिश सेनाओं के प्रवेश के विरोध में हुआ था। इस विद्रोह का नेतृत्व गेंदसिंह ने किया था उसे अबूझमाड़ियों का पूर्ण समर्थन प्राप्त था। विद्रोहियों ने मराठा शासकों द्वारा लगाए गए कर को देने से इंकार कर दिया और बस्तर पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की।
तारापुर विद्रोह (1842-54 ) –
बाहरी लोगों के प्रवेश से स्थानीय संस्कृति को बचाने के लिए अपने पारंपरिक सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक संस्थाओं को कायम रखने के लिए एवं आंग्ल-मराठा शासकों द्वारा लगाए गए करों का विरोध करने के लिए स्थानीय दीवानों द्वारा यह विद्रोह प्रारंभ किया गया।
माड़िया विद्रोह (1842-63)
इस विद्रोह का मुख्य कारण सरकारी नीतियों द्वारा जनजाति आस्थाओं को चोट पहुँचाना था। नरबलि प्रथा के समर्थन में माड़िया जनजाति का यह विद्रोह लगभग 20 वर्षों तक चला।
1857 का विद्रोह
1857 के विद्रोह के दौरान दक्षिणी बस्तर में ध्रुवराव ने ब्रिटिश सेना का जमकर मुकाबला किया। ध्रुवराव माड़िया जनजाति के डोरला उपजाति का था, उसे अन्य जनजातियों का पूर्ण समर्थन हासिल था।
कोई विद्रोह (1859) –
यह जनजाति विद्रोह कोई जनजातियों द्वारा 1859 में साल वृक्षों के कटाई के विरूद्ध में किया गया था। उस समय बस्तर के शासक भैरमदेव थे। बस्तर के जमींदारों ने सामूहिक निर्णय लिया कि साल वृक्षों की कटाई नहीं होने दिया जाएगा। लेकिन ब्रिटिश शासन ने इस निर्णय के विरोध में कटाई करने वालो के साथ बंदूकधारी सिपाही भेज दिए। जनजाति इससे आक्रोशित हो गए और उन्होंने कटाई करने वालों पर हमला कर दिया। इस विद्रोह में नारा दिया गया “एक साल वृक्ष के पिछे एक व्यक्ति का सिर । परिणामतः ब्रिटिश शासन में ठेकेदारी प्रथा समाप्त कर साल वृक्षों की कटाई बंद कर दी।
मुड़िया विद्रोह (1876 ) –
1867 में गोपीनाथ कापरदास बस्तर राज्य के दीवान नियुक्त हुए और उन्होंने जनजातियों का बड़े पैमाने पर शोषण आरंभ किया। उनका विरोध करने के लिए विभिन्न परगनों के जनजाति एकजुट हो गए और राजा के दीवान की बर्खास्तगी की अपील की । किन्तु यह मांग पूरी न होने के कारण उन्होंने 1876 में जगदलपुर का घेराव कर लिया। राजा को किसी तरह अंग्रेज सेना ने संकट से बचाया। ओडिशा में तैनात ब्रिटिश सेना ने इस विद्रोह को दबाने में राजा की सहायता की।
भूमकाल विद्रोह (1910)
1910 में हुआ भूमकाल विद्रोह बस्तर का सबसे महत्वपूर्ण व व्यापक विद्रोह था। इसने बस्तर के 84 में से 46 परगने को अपने चपेट में ले लिया। इस विद्रोह के प्रमुख कारण थे
जनजाति वनों पर अपने पारम्परिक अधिकारों व भूमि एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों के मुक्त उपयोग तथा अधिकार के लिए संघर्षरत् थे। 1908 में जब यहाँ आरक्षित वन क्षेत्र घोषित किया गया और वनोपज के दोहन पर नियंत्रण लागू किया गया तो जनजातियों ने इसका विरोध किया । अंग्रेजों ने एक ओर तो ठेकेदारों को लकड़ी काटने की अनुमति दी और दूसरी ओर जनजातियों द्वारा बनायी जाने वाली शराब के उत्पादन को अवैध घोषित किया। विद्रोहियों ने नवीन शिक्षा पद्धति व स्कूलों को सांस्कृतिक आक्रमण के रूप में देखा। अपनी संस्कृति की रक्षा करना ही उनका उद्देश्य था पुलिस के अत्याचार ने भूमकाल विद्रोह को संगठित करने में एक और भूमिका निभायी। उक्त सभी विद्रोहों को आंग्ल-मराठा सैनिक दमन करने में सफल रहे व विद्रोहियों को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता नहीं मिल सकी। पर राजनैतिक चेतना जगाने में ये सफल रहे।
सरकार को भी अपनी नीति निर्माण में इनकी मांगों को ध्यान में रखना पड़ा। 1857 के महान् विद्रोह के उपरांत भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप न करने की अंग्रेज नीति ऐसे ही विद्रोहों का परिणाम थी। कालांतर में इन विद्रोहों के आर्थिक कारकों ने नवीन भारत की नीति निर्माण में भी मार्गदर्शन किया। अँग्रेजों ने भारतीय संसाधनों का भरपूर दोहन किया। उनका उद्देश्य इन कारखानों में उत्पादन कर भारत के बाजार में माल बेचना था ताकि उन्हें अधिकाधिक लाभ मिल सके। उन दिनों ढाका, कृष्णनगर, बनारस, लखनऊ, आगरा, मुल्तान, लाहौर, सूरत, भड़ौच, अहमदाबाद आदि वस्त्र उद्योग के प्रमुख केन्द्र थे। गोवा, सूरत, मछलीपट्टनम चटगाँव, ढाका जहाज निर्माण के प्रमुख केंद्र थे। अंग्रेजों को भारत एवं इंग्लैंड में अपने उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता थी । इसे ध्यान में रखकर उन्होंने भारत के विभिन्न बंदरगाहों को जोड़नेवाली सड़कों का निर्माण एवं सुधार कार्य किया गया। भारत में रेलवे की शुरुआत एक क्रांतिकारी परिवर्तन था। संचार एवं परिवहन के साधनों के विकास से देश के लोग एक दूसरे के संपर्क में आए एवं उन्होंने एक दूसरे की भावनाओं को समझा। इससे राष्ट्रीयता की भावना बढ़ी। इन्हीं दिनों सन् 1853 ई. में भारत में टेलीग्राम सुविधा प्रारंभ हुई एवं डाक व्यवस्था में सुधार कार्य हुए।
शिक्षा पर प्रभाव :-
कंपनी शासन के शुरू होने के समय भारत में प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था प्रचलित थी जिसमें संस्कृत, अरबी, फारसी, व्याकरण, साहित्य, धर्मशास्त्र, कानून, तर्कशास्त्र, ज्योतिष आदि विषयों का अध्ययन किया जाता था। भारतीय शासकों ने पाठशालाओं, मदरसों को सरकारी जमीन दान पर दी थी। अंग्रेजों ने यह जमीन उनसे छीन ली। उन्होंने नई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। इनमें कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज, बनारस में संस्कृत कॉलेज आदि प्रमुख थे। इन शिक्षा संस्थाओं में भारतीय भाषाओं के अलावा इतिहास, कानून, उर्दू, पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन होता था। ब्रिटिश शासकों ने भारत में शिक्षा विकास के लिए 1833 के चार्टर एक्ट के आधार पर 1835 में मैकाले की शिक्षा नीति लागू की गई। इसमें मुख्य रूप से अँग्रेजी पढ़ाना और उनकी मानसिकता को शासन के पक्ष में करना था। राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारक नई शिक्षा के समर्थक थे। उनका मानना था कि नई शिक्षा के फलस्वरूप भारतीय ज्ञान-विज्ञान, स्वतंत्रता, समानता, जनतंत्र तथा राष्ट्रीय आंदोलनों को मदद मिलेगी।
छत्तीसगढ़ में शिक्षा
मैकाले की शिक्षा योजना के अंतर्गत 1864 में रायपुर में एक मिडिल स्कूल प्रारंभ किया गया जहाँ सह-शिक्षा की व्यवस्था थी जो 20 वर्षों के बाद हाईस्कूल बना। आज हम इसे प्रो. जयनारायण पाण्डेय शा. बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक शाला के नाम से जानते हैं। रायपुर में 1882 में राजकुमार में कॉलेज प्रारंभ हुआ, जिसमें देशी राजाओं के राजकुमारों को शिक्षा दी जाती थी। इनकी परीक्षाएँ इंडियन कौंसिल ऑफ एजुकेशन दिल्ली से संचालित होती थीं। विद्यार्थियों की उच्च शिक्षा के लिए रायपुर में ही 1938 में छत्तीसगढ़ महाविद्यालय की स्थापना हुई।
प्रेस का विकास –
भारत में अँग्रेजी, बांग्ला, हिन्दी समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे जिनका जनता पर व्यापक असर होने लगा। समाचार पत्रों पर नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से 1878 में भारत के तत्कालीन वायसराय लिटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित किया। इस समय के प्रसिद्ध समाचार पत्र द हिन्दू द इंडियन मिरर, अमृत बाजार पत्रिका, केसरी, मराठा, स्वदेश मिलन, प्रभाकर और इन्दु प्रकाश थे। इससे जनता में राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई ।
छत्तीसगढ़ में प्रेस का विकास :
पं. माधवराव सप्रे को छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का जनक कहा जाता है। इन्होंने सन् 1900 में पत्रकारिता प्रारंभ की। छत्तीसगढ़ का प्रथम समाचार पत्र छत्तीसगढ़ मित्र पेन्ड्रा से प्रकाशित होना शुरू हुआ। सन् 1889-90 ई. में राजनांदगाँव रियासत अपना राजकीय समाचार पत्र प्रकाशित करता था, जिसका नाम ‘प्रजा हितैषी’ था। इसके अतिरिक्त ‘छत्तीसगढ़ मित्र’, ‘हिंदी केसरी’, ‘छत्तीसगढ़ विकास’, ‘उत्थान, ‘आलोक’, ‘महाकोशल’, ‘काँग्रेस पत्रिका’, ‘आजकल’, ‘छत्तीसगढ़ केसरी’ आदि उस समय के प्रमुख समाचार पत्र थे। इन पत्र-पत्रिकाओं से जनता में पर्याप्त चेतना एवं जागरूकता आई ।
अभ्यास प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए
1. 1793 में कार्नवालिस ने कौन-सी नई भूमि व्यवस्था लागू की ?
2. अँग्रेजी शासन के समय भारत में संचार एवं परिवहन के साधन में क्या क्या परिर्वतन आए ?
3. अँग्रेजों की नई शिक्षा-व्यवस्था का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा ?
4. भारत के प्राचीन उद्योग-धंधे क्यों बंद हो गए ?
5. भारतीय किसानों की दशा क्यों दयनीय हो गई?
6. भारतीय दस्तकारी एवं शिल्पकलाओं के नाम लिखिए ।
7. भारत में प्रकाशित होने वाले किन्हीं चार समाचार पत्रों के नाम लिखिए
8. छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाले कोई चार समाचार पत्रों के नाम लिखिए।
9. ब्रिटिश भारत के दो प्रमुख बंदरगाहों के नाम लिखिए ।
10. अंगेजों की स्थाई बंदोबस्त की नीति को समझाइए
11. ब्रिटिश कालीन छत्तीसगढ़ में भू-राजस्व व्यवस्था को समझाइए ।
12. अँग्रेजों की नीति का भारतीय दस्तकारी एवं शिल्पकला पर क्या प्रभाव पड़ा?
13. ब्रिटिश कंपनी की नीतियों का भारतीय वन क्षेत्रों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
14. ब्रिटिश शासन का भारतीय संचार एवं परिवहन व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा ?
15. समाचार पत्र जनता की अपेक्षाओं को शासन तक किस तरह पहुँचाते हैं ?
16. संचार और परिवहन के साधनों का विकास होने से लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। इस बात के समर्थन में अपने तर्क दीजिए ।
17. राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने अंग्रेजी की नई शिक्षा-व्यवस्था का समर्थन क्यों किया ? इसके उत्तर में अपना तर्क दीजिए।
18. ब्रिटिश युग में प्रेस के विकास समझाइए ।
टिप्पणी लिखिए
अ. रैयतवाड़ी व्यवस्था
ब. छत्तीसगढ़ में भू-राजस्व व्यवस्था
स. महलवाड़ी व्यवस्था
योग्यता विस्तार
1. जनजातीय विद्रोहों के कारण क्या वर्तमान में जनजातियों के जीवन में कुछ बदलाव आए हैं ?
2. जनजातियों के जीवन एवं संस्कृति के बारे में जानकारी एकत्र कीजिए ?