एक और गुरु दक्षिणा (कहानी) राजे राघव कक्षा 5 हिन्दी

एक और गुरु दक्षिणा (कहानी)

एक थे ऋषि । गंगा तट पर उनका आश्रम था मीलों लंबा-चौड़ा । बहुत-से शिष्य आश्रम में रहते थे। आश्रम में अनेक गाएँ थीं। हिरनों के झुंड आश्रम में चौकड़ी मारते, उछलते-कूदते फिरते थे।

ऋषि के शिष्यों में तीन प्रमुख शिष्य थे। तीनों ही अस्त्र-शस्त्र में निपुण, शास्त्र ज्ञान में पारंगत, बोलचाल में मीठे, स्वभाव में विनम्र, धरती की तरह सहनशील, सागर की तरह गंभीर और सिंह के समान बलशाली थे। वह पुराना जमाना था। उस समय आश्रम की गद्दी का अधिकारी होना ऐसा ही था, जैसे किसी राज-सिंहासन पर बैठ जाना। राजा स्वयं ऋषि-मुनियों के आगे सिर झुकाते थे।

ऋषि अपने तीनों शिष्यों से बहुत प्रसन्न थे। उन्हें वे प्राणों के समान प्रिय थे। मगर एक समस्या थी। ऋषि काफी बूढ़े हो गए थे। वे चाहते थे कि अपने सामने ही उन तीनों में से किसी एक को आश्रम का मुखिया बना दें। मगर बनाएँ किसे? यह समस्या भी छोटी नहीं थी। तीनों ही एक से बढ़कर एक आज्ञाकारी थे, योग्य थे और सच्चे अर्थों में मुखिया बनने के अधिकारी थे।

ऋषि सोचते रहे, सोचते रहे। आखिर एक दिन उन्होंने तीनों को अपने पास बुलाया और कहा, “प्रियवर! तुम तीनों ही मुझे प्रिय हो। मैंने जी-जान से तुम्हें पढ़ाया-लिखाया और अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा दी है। मुझे जो-जो विद्याएँ आती थीं, तुम्हें सब सिखा दीं। अब केवल गुरुमंत्र सिखाना बाकी है। गुरुमंत्र किसी एक को ही बताऊँगा। जिसे गुरुमंत्र बताऊँगा, वही मेरी गद्दी का अधिकारी होगा। मैं तुम तीनों की परीक्षा लेना चाहता हूँ।”

ऋषि की बात सुनकर तीनों ने सिर झुका लिया। वे बोले, “गुरुदेव, ऐसा कौन-सा काम है, जो हम आपके लिए नहीं कर सकते?”

ऋषि मुस्कराकर बोले, “यह मैं जानता हूँ। फिर भी परीक्षा, परीक्षा है। तुम तीनों अलग-अलग दिशाओं में जाओ और अपने श्रम से कमाकर मेरे लिए कोई अद्भुत भेंट लाओ।

जिसकी भेंट सबसे अधिक सुन्दर और मूल्यवान होगी, वही गद्दी का अधिकारी होगा। ध्यान रहे, एक वर्ष में वापस आना भी जरूरी है।”

ऋषि की आज्ञा पाकर तीनों शिष्य चल पड़े। वे मन-ही-मन योजनाएँ बनाते चले जा रहे थे। उनमें से एक किसी राजा के पास जा पहुँचा। दरबार में जाकर उसने नौकरी करने की इच्छा प्रकट की। राजा तो ऋषि को जानते ही थे। उनका शिष्य कितना योग्य होगा, यह जानने में भी उन्हें देर न लगी। राजा ने उसे तुरंत अपने यहाँ रख लिया।

दूसरा शिष्य समुद्र पर पहुँचा। वह मछुआरों की बस्ती में गया और उनसे गोता लगाने की विद्या सीखने लगा। कुछ ही दिनों में वह भी कुशल गोताखोर बन गया।

तीसरा शिष्य चलते-चलते एक गाँव में पहुँचा। गाँव उजाड़ था। घर थे, जानवर थे, बच्चे थे, महिलाएँ थीं, मगर पुरुष एक भी नहीं था। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। मालूम पड़ा कि यहाँ अकाल पड़ा है। कई वर्षो से पर्याप्त वर्षा नहीं हुई है। सभी लोग सहायता के लिए राजा के पास गए हैं।

वह सोच में पड़ गया। फिर चल पड़ा अपने रास्ते पर मगर उसे ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा। सामने से गाँववालों की भीड़ आ रही थी। वे उदास थे और राजा को बुरा-भला कह रहे थे।

यह जानकर ऋषि के शिष्य को हँसी आ गई। एक राहगीर को हँसता देख गाँववालों को लगा। वे बोले “आप हँसे क्यों?”

“हँसी तो मुझे तुम्हारी मूर्खता पर आ रही है।”

“हमारी मूर्खता पर! अकाल ने हमें तबाह कर दिया है। भूखों मरने की नौबत आ गई है। हम सहायता के लिए राजा के पास गए थे। उसने भी हमारी सहायता नहीं की। आप हमें मूर्ख बता रहे हैं!”

“हाँ, मैं ठीक कह रहा हूँ। तुम सैकड़ों आदमी मिलकर कुछ नहीं कर सकते, तो राजा अकेला क्या कर लेगा? आदमी सहायता करने के लिए पैदा हुआ है। “

ऋषि के शिष्य की बात सुनकर सारे लोग सोच में पड़ गए। वे बोले, “भैया, तुम चमत्कारी लगते हो। हम क्या जानें ? चलो, तुम ही हमारे दुखों को दूर कर दो।” तो “मैं ही क्यों, तुम स्वयं हाथ उठाओ। कदम बढ़ाओ। हिम्मत से क्या नहीं हो सकता? उठाओ फाल-कुदाल। कुएँ खोदो। प्यासी धरती की प्यास बुझाओ ।” शिष्य बोला ।

“कुएँ ! कुएँ तो गाँव में हैं, मगर सारे सूख रहे हैं। उनमें पानी नहीं, तो नए कुओं में कहाँ से आएगा?” गाँववाले बोले।

“गाँववालों की बातें सुनकर ऋषि का शिष्य मुस्कराया। वह बोला, “कुओं को सूखने स्थिति में किसने पहुँचाया? क्या तुम लोगों ने कभी जल संरक्षण के कोई उपाय किए हैं? तुम सब लेने की धुन में लगे रहे, देने की बात किसी ने नहीं सोची। उसी का फल आज भुगत रहे हो। खैर, सुबह का भूला अगर शाम को घर लौट आए तो वह भूला नहीं कहा जाता । चलो, कुओं को और गहरा करो। पानी जरूर निकलेगा। जमीन पर हरियाली फैलेगी तो बादल भी आकर्षित होंगे। वर्षा होगी तो उसका पानी रोकेंगे।”

गाँववालों की समझ में बात आ गई। दूसरे दिन से गाँववाले कुएँ खोदने में जुट गए । श्रम के मोती पसीना बनकर गिरे, तो भगवान की आँखें भी भीग गई। कुओं से शीतल जल धारा फूट पड़ी। सूखी धरती हरियाली की चूनर ओढ़कर फिर से मुस्कराने लगी।

एक गाँव की हालत सुधरी। फिर दूसरे की सुधरी । श्रम और साहस का काफिला आगे बढ़ा। ऋषि का शिष्य गाँव-गाँव जाता। अकाल से लोगों को लड़ना सिखाता। दूर-दूर तक उसका नाम फैल गया। सभी उसे आदमी के रूप में ‘देवता’ समझने लगे। राजा के कानों तक भी यह बात पहुँची । ऋषि अपने शिष्यों का इंतजार कर रहे थे। एक दिन पहला शिष्य पहुँचा। उसके साथ हाथी घोड़े थे। उसने सिर झुकाकर कहा, “गुरुदेव, देखिए राजा ने मेरी योग्यता से प्रसन्न होकर मुझे हाथी-घोडे भेंट में दिए हैं।” ऋषि मुस्कराए और चुप रहे दूसरे दिन दूसरा शिष्य आया। उसने समुद्र से बहुत सारे बहुमूल्य कुछ नहीं। मोती इकट्ठे किए थे। ऋषि ने मोतियों की पोटली ले ली और एक ओर रख दी। कहा पूरा वर्ष बीत गया। तीसरा शिष्य नहीं लौटा। दोनों शिष्यों को लेकर ऋषि उसकी खोज में चल पड़े। राजदरबारों में गए, मगर पता नहीं चला। नगरों में ढूँढ़ा, किसी ने कुछ नहीं बताया। रास्ते में शाही पालकी जा रही थी। ऋषि को देखकर पालकी रुक गई। राजा नीचे उतरे। ऋषि को प्रणाम किया। ऋषि ने राजा से कहा, “राजन्! आपकी प्रजा बहुत सुखी है। चारों और लहलहाती फसल खड़ी है। आप भाग्यवान हैं।”

“नहीं ऋषिदेव !, यह प्रताप मेरा नहीं, देवता का है। मेरे राज्य में एक देवता ने जन्म लिया है। मैं देवता के दर्शन करने जा रहा हूँ।” देवता के पैदा होने की बात सुनकर ऋषि भी चकराए। वे भी राजा के साथ चल पड़े।

एक दिन ढूंढते ढूंढते किसी गाँव में देवता मिल गए। धूल से सने, पसीने से लथपथ, गाँववालों के साथ काम में जुटे थे। राजा चकित रह गया। वह देवता कैसे हो सकता था? वह तो एक साधारण किसान जैसा था। सिर पर न मुकुट था, न गले में स्वर्ण के फूलों की माला । राजा आगे नहीं बढ़ा। चुपचाप खड़ा देखता रहा। मगर ऋषि चिल्लाए, “बेटा सुबंधु ! तुम यहाँ? मैं तुम्हें ही ढूँढ़ता फिर रहा था । ” कहते हुए ऋषि ने धूल धूसरित सुबंधु को बाँहों में भर लिया। “क्या मुझे दक्षिणा देने की बात तुम भूल गए हो?” ऋषि ने कहा।

“नहीं गुरु जी ! भूल कैसे जाता ? मगर अभी काम अधूरा है। इन सारे लोगों के आँसुओं को पोंछना था। आप ही ने तो बताया था, “मनुष्य की सेवा से बढ़कर महान धर्म कोई नहीं है । “

राजा देखते रह गए। ऋषि की आँखें भी नम हो गईं। ऋषि ने भरे गले से कहा, “बेटा! तुमने ठीक ही कहा । तुम्हें सचमुच अब मेरे पास आने की जरूरत नहीं । तुमने इतने लोगों की भलाई करके मेरी दक्षिणा चुका दी है। जो दूसरों के आँसू लेकर उन्हें मुस्कराहट दे दे, वह सचमुच देवता है। तुम देवता से कम नहीं हो।” राजा का सिर सुबंधु के आगे झुक गया।

प्रश्न और अभ्यास

प्रश्न 1. ऋषि का आश्रम कैसा था ?

 उत्तर – ऋषि का आश्रम गंगा तट पर मीलों का आवरण

प्रश्न 2. गुरु ने शिष्यों की परीक्षा क्यों ली ?

 उत्तर गुरु ने अपनी बुद्धि परीक्षण करने के लिए।परीक्षा ली।

 प्रश्न 3. ऋषि ने अपने शिष्यों की परीक्षा कैसे ली?

उत्तर – ऋषि ने अपने शिष्यों को अलग-अलग दिशाओं में भेजकर मेहनत से धन कमाने वाले अपने लिए कोई चमत्कार नहीं कियासंदेश देने वाले की बात और यह भी कहा कि संदेशवाहक|जिसका सबसे सुंदर होगा वहीं गुग्गी के अधिकारी होंगे। इस प्रकार उनकी परीक्षा लो।

 प्रश्न 4. पहला शिष्य कहां गया? वह ऋषि का संदेशवाहक हैमें क्या लाकर दिया?

उत्तर -पहला शिष्य राजा के यहाँ नौकरी करने लगा। उसने ऋषि को घोड़े पर सवार होने के लिए दिया।

प्रश्न 5. दूसरे शिष्य द्वारा दी गई संचय की पोटली का ऋषि ने क्या किया?

उत्तर– दूसरे शिष्य द्वारा दी गई गणना को पोटली कोऋषि ने एक ओर रख दिया।

 प्रश्न 6. ऋषि के तीन शिष्यों की विशेषता क्या थी?

 उत्तर ऋषि के अनुयायी शिष्य अस्त्र-शस्त्र में कूट, शास्त्र ज्ञान में पारंगत, बोल-चाल में समायोजन, स्वभाव में अनुकूलन, पृथ्वी की तरह सहनशील, समुद्र की गंभीर तरह, सिंह केसमान बलशाली थे।

प्रश्न 7. सुबंधु ने गाँव में जाकर क्या देखा?

उत्तर- सुबंधु ने गांव में जाकर देखा गांव उजाड़ था। गाँवों में अकाल पड़ा था। कई वर्षों तक पर्याप्त वर्षा नहीं हुई।

प्रश्न 8. सुबंधु ने गांववासियों की दशा कैसे सुधारी?

 उत्तर- सुबंधु गांव-गाँव जाकर अकाल से लोगों को सिखाकर गाँव के साथ स्वयं काम करके उसकी दशा में सुधार करें

प्रश्न 9. गाँव वाले सुबंधु को देवता क्यों कहते थे? 

उत्तर- सुबंधु ने गाँव वालों को मुसीबतों से लड़ना सिखाया। परिश्रम करना सिखाना, कार्य और साहस से आगे बढ़ना इसलिए गाँव वाले उसे देवता कहते थे।

प्रश्न 10. गुरुजी ने गुरु मंत्र पाने का अधिकारी किसे माना?और क्यों ?

उत्तर – गुरुजी ने गुरु मंत्र पाने का अधिकारी अपने तीसरे शिष्य को माना क्योंकि उसने गांव के अकाल से लोगों को लड़ना सिखाया उनके लिये स्वयं मेहनत किया . उनके कामों में स्वयं पसीना बहाया और उनकी सहायता कीदूसरे के आंसू लेकर इन्हे मुस्कराहट दी .

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